Monday, October 15, 2012

जाम और तेरा नशा..


आदत सी थी हमें गम बयां करनेकी....
प्यार की आड़ में खुदको शर्मिंदा करनेकी..

आज कल हमने गम बाँटना बंद करदिया..
और शराब को ओठोंसे लगाना शुरू कर दिया..

आज कल अब हम रोज़ ही गम पीते हैं..
पता नहीं क्यों लोग हमें शराबी कहते हैं..

जाम ओठोंसे आते आते रुक सा जाता हैं ..
हमें तेरे चेहरे सा हर जाम में नजर आजाता हैं..

वो तेरा मुस्कुराना.. हाये.. आज फिर एक कसक सी छोड़ गया..
जाम झलकते झलकते तेरा चेहरा धुंदलासा करगाया..

तेरा चेहरा ढूंडनेकी नाकाम कोशिश में.. नजाने कितने जाम लबोंको प्यासा सा करगये..
और तुम हमेशा की तरह.. पीछे मुड़ना भुलसा गए..

इस आलम मे तुमसे दिलचस्प गुफ्तगू सी होजाती हैं..
और कुछ बातें बिना लफ्ज की रहजाती हैं..

आज कल गीली तिल्ल्लियाँ भी धुवाँ जलाती हैं..
और वो तेरी बाँहों की खनक.. आज भी बेकरार सा कर जाती हैं..

ये धुवाँ बुझता नहीं, जलाता मुझे रहता हैं..
और ये तेरा नशा.. खुदसे मुझे बेफिकर सा करजाता हैं..

अब हर शाम का सूरज इसी तरह डूबता हैं.. और लोग कहते हैं की मैं शराब में...
उन्हें क्या पता, उस जाम में नशा, तेरी आँखों का होता हैं..

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